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من أحكام الجنازة (خطبة) (باللغة الهندية)

من أحكام الجنازة (خطبة) (باللغة الهندية)
حسام بن عبدالعزيز الجبرين

مقالات متعلقة

تاريخ الإضافة: 9/11/2022 ميلادي - 15/4/1444 هجري

الزيارات: 6279

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शीर्षक:

जनाज़े के कुछ अह़काम व मसले


अनुवादक:

फैज़ुर रह़मान ह़िफज़ुर रह़मान तैमी

 

प्रथम उपदेश:

प्रशंसाओं के पश्चात

 

إلَهِي تَحَمَّلْنَا ذُنُوبًا عَظِيْمَةً
أَسَأْنا وقصَّرْنا وجُودُكَ أعْظَمُ
سَتَرْنَا مَعَاصِيْنا عن الخلقِ غَفْلَةً
وأنتَ تَرانَا ثُمَّ تَعْفُو وتَرْحَمُّ
وَحَقِّك ما فِيْنَا مُسِيءٌ يَسُرُّهُ
صُدُودُكَ عَنْهُ بلْ يَخَافُ ويَنْدَمُ
إلَهِي فَجُدْ واصْفحَ وأَصْلِحْ قلُوبنا
فأنْتَ الذِيْ تُولِيْ الجَمِيلَ وَتُكْرِمُ

 

अर्थात: हे अल्लाह हम ने बड़े बड़े पाप किए,हम से गलतियां और काहिलियां हुई हैं,किन्तु तेरी उदारता अति महान है।


तू ने हमारे पापों को जीवों की नजर से छुपाए रखा जब कि तू ने हमें गफलत में लत-पत पाया,उसके पश्चात तू ने हमारे साथ क्षमा से काम लिया और दया एवं कृपा का मामला फरमाया।


हे सत्य अल्लाह हम में से कोई नहीं जो इस बात से प्रसन्न हो कि तू उस से अपनी दया दृष्टिफेर ले,बल्कि उसे भय व नदामत होती है।


हे अल्लाह तू उदारता फरमा,क्षमा फरमा और हमारे दिलों को सुधार दे,तू ही इह़सान व उपकार करता और आदर व सम्मान प्रदान करता है।


मेरे ईमानी भाइयो हमारे पालनहार की शरीअ़त ने विवाह पर प्रोत्साहित किया है,धार्मिक और नैतिक व्यक्ति का चयन करने और धार्मिक और नैतिकताको विवाह का मानकबनाने पर प्रोत्साहित किया है,शरीअ़त ने प्रशिक्षण और अच्छे पालनप पोसनका आदेश दिया है और हमारी शरीअ़त ने लोगों के आपसी रिश्ते को मज़बूत व टिकाउुबनाने पर ध्यान दिया है,अत: विभिन्न प्रकार के अधिकार एवं शिष्टाचारअनिवार्य किये हैं,और प्रत्येक प्रकार के कष्ट पहुँचाने से रोका है,जिस से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआ़ला अपने बंदों पर कितना ध्यान दिया है,उन के जन्म से पूर्व,बचपन में ,युवा अवस्था और बुढ़ापे के दिनों के समस्त चरणोंमें उस पर अपना ध्यान रखाता है,बल्कि अल्लाह का ध्यान जीवित के साथ मृतकोंको भी प्राप्त होती है,अत: अल्लाह ने मृत्यु से पूर्व,मृत्यु के समय (निज़ा की अवस्था में) और मृत्यु के पश्चात विभिन्न विभिन्न आदेश लागू किये हैं,जिस से यह स्पष्ट होता है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है उस पर अल्लाह का कितना कृपा व दया होता है,अल्लाह तआ़ला उसके आदर व सम्मान की रक्षा करता है और उस के साथ सुंदर व्यवहार करता है।यही कारण है कि उसे कलमा-ए-तौह़ीद (शहादत) की तलकीन करना,कफन देना,उस के जनाज़े की नमाज़ पढ़ना,शांति व संतुष्टि एवं विनयशीलता के साथ उस के जनाज़े में चलना,और उस के लिए क्षमा की दुआ़ करना अनिवार्य कर दिया गया है।आज हमारे चर्चा का विषय है:मृत्यु से संबंधित कुछ अह़काम एवं सुन्नतें:

﴿ كُلُّ نَفْسٍ ذَآئِقَةُ الْمَوْتِ وَإِنَّمَا تُوَفَّوْنَ أُجُورَكُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فَمَن زُحْزِحَ عَنِ النَّارِ وَأُدْخِلَ الْجَنَّةَ فَقَدْ فَازَ وَما الْحَيَاةُ الدُّنْيَا إِلاَّ مَتَاعُ الْغُرُورِ ﴾ [آل عمران: 185].

अर्थात:प्रत्येक प्राणी को मौत का स्वाद चखना है,और तुम्हें तुम्हारे (कर्मों का) प्रलय के दिन भरपूर प्रतिफल दिया जाएगा तो (उस दिन) जो व्यक्ति नरक से बचा लिया गया तथा स्वर्ग में प्रवेश पा गया तो व सफल हो गया,तथा संसारिक जीवन धोखे की पूंजी के सिवा कुछ नहीं है।


आदरणीय सज्जनो

जो व्यक्ति मृत्युकालिक अवस्था में हो उस के पास लोगों के लिए मुस्तह़ब (जिस कार्य के करने से पुण्य और न करने से पाप न हो) है कि उसे कलमा-ए-तौह़ीद (शहादत) की तलक़ीन (नसीहत) करें,अत: अनस बिन मालिक रज़ीअल्लाहु अंहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक अंसारी व्यक्ति को देखने गए और फरमाया:ए मामू आप कहिए لا إلهَ إلا اللهُ"।इस ह़दीस को इमाम अह़मद और इब्ने माजा ने वर्णन किया है और अल्बानी ने इसे सह़ीह़ कहा है।


दूसरी ह़दीस में आया है: अपने मरने वालों को لا إلهَ إلا اللهُ की तलकीन करो,मृत्यु के समय जिस व्यक्ति की अंतिम बात لا إلهَ إلا اللهُ हो वह कभी न कभी स्वर्ग में अवश्य प्रवेश करेगा,यद्यपि उस से पूर्व उसे जो भी हो इस ह़दीस को अल्बानी ने सह़ीह़ कहा है।


यह भी मुस्तह़ब (जिस कार्य के करने से पुण्य और न करने से पाप न हो है कि उस के लिए दुआ़ करें और उसे केवल अच्छी बात ही कहें,आप सलल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं: जब तुम रोगी अथवा मरने वाले के पास जाओ तो भलाई की बात कहो क्योंकि जो तुम कहते हो फरिश्ते उस पर आमीन कहते हैं ।सह़ीह़ मुस्लिम


जब उस की मृत्यु हो जाए तो उस की आखें बंद करना सुन्नत है,इसका प्रमाण उम्मे सल्मा की ह़दीस है,वह फरमाती हैं:रसूल सलल्लाहु अलैहि वसल्लम अबू सल्मा रज़ीअल्लाहु अंहु के पास आए,उस समय उनकी आखें खुली हुई थीं तो आप ने उन्हें बंद कर दिया,फिर फरमाया: जब आत्मा निकाली जाती है तो अज़र उसका पीछा करती है... ।सह़ीह़ मुस्लिम


शव के पूरे शरीर को ढाकना भी सुन्नत है,मगर यह कि इह़राम की अवस्था में मृत्यु हो तो उस का सर नहीं ढापा जाएगा।इसका प्रमाण आ़यशा रज़ीअल्लाहु अंहा की ह़दीस है वह फरमाती हैं:जब रसूल सलल्लाहु अलैहि वसल्लम की मृत्यु हुई तो आप को धारी दार यमनी चादर से ढापा गया।(बोख़ारी व मुस्लिम)


शव का चेहरा खोल कर उसे चूमना जाएज़ (वैध) है,आ़यशा रज़ीअल्लाहु अंहा वर्णन करती हैं कि नबी सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उ़समान बिन मज़उ़ून को चूमा।उन की मृत्यु हो चुकी थी।आप रो रहे थे अथवा (वर्णनकर्ता ने) कहा:आप की दोनों आखें आंसू से भरी थीं।इस ह़दीस को तिरमिज़ी ने वर्णन किया है और अल्बानी ने सह़ीह़ कहा है।


तथा शव के लिए क्षमा की दुआ़ करना भी सुन्नत है,अत: बोख़ारी व मुस्लिम में अबूहोरैरह रज़ीअल्लाहु अंहु से वर्णित है,वह फरमाते हैं:रसूल सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ह़ब्शा के राजा नज्जाशी की मृत्यु के विषय में उसी दिन बता दिया था जिस दिन उसकी मृत्यु हुई।और आप ने फरमाया: अपने भाई के लिए क्षमा की दुआ़ करो ।


आदरणी सज्जनो मय्यित (शव) का ऋणके भुगतान करने में जल्दी करना मशरू है,मुसलमान का आदर व सम्मान का तक़ाज़ा है कि उसे छुपा के स्नान दिया जाए,उसे कफन पहनाया जाए और उसके शव का सम्मान किया जाए,अत:ह़दीस में आया है: शव की हड्डी तोड़ना ऐसा ही है जैसे जीवित की तोड़ना ।इस ह़दीस को अबूदाउूद और निसाई ने वर्णन किया है और अल्बानी ने इसे सह़ीह़ कहा है।उसे स्नान देने का अधिकार सर्वाधिक उस व्यक्ति को है जिस के प्रति मय्यित ने वसीयत की हो,क्योंकि अबूबकर सिद्दीक़ ने यह वसीयत की थी कि उनको उनकी पत्नी अस्मा बिन्त ओ़मैस स्नान दें,अत: उन्होंने उस वसीयत पर अ़मल किया,इसी प्रकार से अनस ने यह वसीयत की कि उन को मोह़म्मद बिन सीरीन स्नान दें,मय्यित का भी अपना सम्मान होता है,इस लिए उसे स्नान देते समय केवल उन्हीं लोगों को रहना चाहिए जिनका रहना अनिवार्य हो और जो स्नान देने में शामिल हों,जो व्यक्ति चूमना चाहे तो स्नान के पश्चात कफन बांधने से पूर्व चूमे।


इस अवसर से एक शाब्दिक बिंदु को बयान करना भी उुचित लगता है:कुछ भाषाविदोंकहते हैं:मनुष्य की आत्मा निकल जाती है तो उसे جُثّہ (शव) कहा जाता है।स्नान और कफन के पश्चात उसे जनाज़ा कहा जाता है और दफन के पश्चात उसे क़ब्र कहा जाता है।मुसलमान का अपने भाई पर यह अधिकार है कि उस के जनाज़े में शामिल हो,अत: सह़ीह़ मुस्लिम की मरफू ह़दीस है: मुसलमान के मुसलमान पर पांच अधिकार हैं-उन में आप ने यह भी फरमाया:जनाज़ा में शामिल होना ।बल्कि जनाज़ा में शामिल होने का बड़ा पुण्य है,आप सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: जो व्यक्ति जनाज़े में शरीक हुआ यहाँ तक कि जनाज़े की नमाज़ पढ़ा तो उस के लिए एक क़ीरात़ का पुण्य है।और जो कोई जनाज़े में उसके दफन होने तक शामिल रहा उसे दो क़रात़ पुण्य मिलता है ।कहा गया:यह दो क़ीरात़ क्या हैं आप ने फरमाया: दो बड़े बड़े पहाड़ों के बराबर हैं ।(बोख़ारी व मुस्लिम)

نَادِ القُصورَ التي أقوَتْ مَعالِمُها
أيْنَ الجسُومُ التي طابَتْ مَطَاعِمُهَا
أيْنَ المُلُوكُ وأبْنَاءُ الملوك ومَن
أَلْهاهُ ناضِرُ دُنياهُ وناعِمُها
أينَ الذين لهَوْا عَمَّا لهُ خُلِقُوا
كَمَا لَهَتْ في مَرَاعِيهَا سَوائِمُهَا
أينَ البيُوتُ التي مِن عَسْجدٍ نُسجَتْ
هَلُ الدنَانيرُ أغنَتْ أمْ دَرَاهِمُهَا
أينَ العُيونُ التي نامَتْ فما انَتَبَهَتْ
وَاهًا لها نَوْمَةً ما هَبَّ نائِمُهَا

 

अर्थात: मज़बूत खंभों वाले महलों को आवज़ दें कि वे लोग कहाँ गए जिन का खान-पान उत्तम हुआ करता था।


वह राजा,उन के संतान और समस्त लोग कहाँ गए जिन्हें दुनिया की हरयाली ने लापरवाहकर दिया था।


कहाँ गए वे लोग जो जन्म के उद्देश्य से ऐसे लापरवाहथे,जैसे उन के चौपाए चरागाहों में अपने परिणाम से लापरवाहथे।


कहाँ हैं वे घर जिस का निर्माण सोने की ईटों से किया गया क्या दीनार व दिरहम उन (के आवासों को मृत्यु से) बेन्याज़ कर सके


कहाँ हैं वे आँखें जो सोईं तो सोई रह गईं।आह वह नीन्द जिस के पश्चात मनुष्य उठ न सका।


हे अल्लाह तू हमें क्षमा प्रदान फरमा,हम पर कृपा कर,हे अल्लाह हम तुझ से उत्तम समाप्ति की दुआ़ करते हैं।


द्वतीय उपदेश:

الحمد لله...


प्रशंसाओं के पश्चात:

इस्लामी भाइयो जनाज़े से संबंधित एक मसला यह है कि जनाज़ा के आगे अथवा पीछे चलना जाएज़ (वैध) है,ये दोनों ही ह़दीस में आए हैं,अनस बिन मालिक रज़ीअल्लाहु अंहु बयान करते हैं कि: मैं ने रसूल सलल्लाहु अलैहि वसल्लम और अबूबकर व उ़मर रज़ीअल्लाहु अंहुमा को देखा कि ये लोग जनाज़े के आगे आगे और पीछे पीछे चला करते थे ।इस ह़दीस को इब्ने माजा ने वर्णन किया है और अल्बानी ने इसे सह़ीह़ कहा है।कुछ विद्धानों ने जनाज़ा के पीछे चलने को अफज़ल कहा है क्योंकि जनाज़ा का अनुगमन करने का जो आदेश आया है,उसका यही तक़ाज़ा है,किन्तु इस मसले में विस्तारहै।


जनाज़ा में तेज गति से चलना सुन्नत है,ह़दीस में है: जनाज़े को जल्दी ले कर चलो क्योंकि यदि वह सकाचारी है तो तुम उसे ख़ैर की ओर ले जा रहे हो और यदि वह पापी है तो बुरी चीज़ को अपनी गरदनों से उतार कर हट जाओगे ।(बोख़ारी व मुस्लिम)


क़ब्रस्तान में प्रवेश होते समय यह दुआ़ पढ़ना सुन्नत है:

"السلامُ عليكُمْ دارَ قومٍ مُؤمنينَ. وإنا، إنْ شاء اللهُ، بكمْ لاحقونَ"


इसका प्रमाण अबूहोरैरह रज़ीअल्लाहु अंहु की यह ह़दीस है कि रसूलुल्लाह सलल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ब्रस्तान में आए और फरमाया:

"السلامُ عليكُمْ دارَ قومٍ مُؤمنينَ. وإنا، إنْ شاء اللهُ، بكمْ لاحقونَ"

अर्थात: ए ईमान वाली क़ौम के घराने तुम सब पर शांति हो और हम भी इंशाअल्लाह तुम्हें साथ मिलने वाले हैं।(मुस्लिम)


शव के औलिया (अभिभावकों) और उस के निकट परिजनों को इस बात का अधिक अधिकार बनता है कि वह शव को क़ब्र में उतारें:

﴿ وَأُوْلُواْ الأَرْحَامِ بَعْضُهُمْ أَوْلَى بِبَعْضٍ فِي كِتَابِ اللّهِ ﴾

अर्थात:और वही परिवारिक समीपवर्ती अल्लाह के लेख (आदेश) में अधिक समीप हैं।


सुन्नत यह है कि क़ब्र के पैर की ओर से शव को क़ब्र में प्रवेश किया जाए,शव को दाएं पहलू काबा की ओर लिटाया जाए,और जो व्यक्ति उसे क़ब्र में रखे वह यह दुआ़ पढ़े:"بسم الله، وعلى سنة رسول الله " अथवा:" بسمِ اللَّهِ، وعلى ملَّةِ رسولِ اللَّهِ"

।

इब्ने उ़मर रज़ीअल्लाहु अंहुमा फरमाते हैं: नबी सलल्लाहु अलैहि वसल्लम जब शव को क़ब्र में प्रवेश करते तो फरमाते:"بسم الله، وعلى سنة رسول الله " एक दूसरी रिवायत में है:" بسمِ اللَّهِ، وعلى ملَّةِ رسولِ اللَّهِ" इस ह़दीस को अल्बानी ने सह़ीह़ कहा है।


इसी प्रकार से क़ब्र में उतारने के पश्चात कफन की गिरह खोलना भी सुन्नत है,इस विषय में अ़ब्दुल्लाह बिन मसउ़ूद रज़ीअल्लाहु अंहु का एक असर आया है,वह फरमाते हैं: जब तुम शव को क़ब्र में प्रवेश कर दो तो गिरह खोल दो ।


दफन के समय तीन लप मिट्टी डालने वाली ह़दीस की सनद को कुछ विद्धानों ने सह़ीह़ और कुछ ने ज़ई़फ माना है और इस मसला में विस्तारहै।


सुन्नत यह है कि क़ब्र को भूमि से थोड़ा सा तकरीबन एक बालिश्त के बराबर उूंची रखा जाए,इस प्रकार से कि वह कुहान जैसा दिखे,क़ब्र पर क़कड़ डाल कर पानी छिड़कना भी सुन्नत है ताकि मिट्टी बैठ जाए,क़ब्र के दोनों ओर कोई चीज़ चिन्ह के रूप में गाड़ने में भी कोई दिक्क्तनहीं।दफन के पश्चात शव के लिए क्षमा और स्थिरता की दुआ़ करना सुन्नत है,अत: उ़समान बिन अ़फ्फान रज़ीअल्लाहु अंहु वर्णन करते हैं कि:नबी सलल्लाहु अलैहि वसल्लम जब शव को दफन कर लेते तो क़ब्र पर रुकते और फरमाते अपने भाई के लिए क्षमा एवं स्थिरता की दुआ़ करो नि:संदेह अब उससे प्रश्न किया जाएगा ।इस ह़दीस को अबूदाउूद ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सह़ीह़ कहा है।


क़ब्र पर बैठना और उस पर चलना ह़राम है,जैसा कि सह़ीह़ मुस्लिम की ह़दीस है: तुम में से कोई अंगारे (इस प्रकार से) बैठ जाए कि वह उसके वस्त्रों को जला कर उसके चर्म तक पहुँच जाए,उसके लिए इससे अच्छा है कि वह किसी क़ब्र पर बैठे ।


मेरे इस्लामी भाइयो जनाज़ा का दृश्य शांतिपूर्ण,विनयशीलता के साथ और लोगों के लिए इबरत का कारण हुआ करता है।महान ताबेई़ क़ैस बिन ओ़बाद फरमाते हैं:नबी सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के सह़ाबा जनाज़ा के पास आवाज़ उूंची करना मकरूह (इस्लामी दृष्टिकोण से जिस कार्य का न करना उत्तम हो) समझते थे।


बरा बिन आ़ज़िब की रिवायत है,वह फरमाते हैं: हम रसूल सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ एक अंसारी के जनाज़े में गए।हम क़ब्र के पास पहुँचे तो अभी क़ब्र तैयार नहीं हुआ था,तो आप सलल्लाहु अलैहि वसल्लम बैठ गए और मह भी आप सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के आस पास बैठ गए।मानो कि हमारे सरों पर पक्षी हों (अति शांतिपूर्ण और ख़ामोशी से बैठे थे) ।


त़ैबी फरमाते हैं:यह इस बात का संकेत है कि वे ख़ामोशी के साथ अपना सर झुकाए हुए थे,और दाएं बाएं नहीं देख रहे थे।


अर्थात: मानो उन में से प्रत्येक के सर पर पक्षी बैठा हो जिसे वह शिकार करना चाह रहा हो इस लिए थोड़ा भी हिल न रहा हो।


हमारा अवलोकनयह है कि कुछ जनाज़ों में आवज़ें उच्चहोती हैं,लोग अति अधिक उपदेश व परामर्शकरते हैं बल्कि कई बार तो फून की घंटियां लगातार बजती रहती हैं।और सब से बुरा यह कि हंसी मज़ाक़ की आवाज़ तक सुनाई देती है।


शव के परिवार वालों को ताज़ीयत (शोक) करना भी सुन्नत है,ताज़ीयत हर स्थान पर जाएज़ है,बाज़ार में,घर में,मस्जिद में और कार्य के स्थान आदि में।


यह भी जान लें कि ताज़ीयत (शोक) की सुन्नतों में से यह नहीं है कि जिस की ताज़ीयत (शोक) करें उस के सर को चूमें,क्योंकि मोसाफह़ और चूमना सामन्य मोलाक़ात में हुआ करते हैं,यदि सामान्य लोग केवल मोसाफह़ करने पर बस करें और निकट परिजन ही चूमें तो उस के लिए अधिक आसानी होगी जिस की ताज़ीयत (शोक) की जाती है,विशेष रूप से ऐसी स्थितियों में जबकि ताज़ीयत (शोक) करने वाले अधिक हो।


صلى الله عليه وسلم.

 

 





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